Monday 26 October 2015

ईश्वर ने हमें क्यों बनाया ?



अयं अग्निर्वीर्तमो. (यजुर्वेद १५.५२)
I am Agniveer. I am Best. [Yajurved 15/52]


इस सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त अद्बुत नियमितता पर एक दृष्टिक्षेप ही काफ़ी है किसी महान नियंता की सत्ता को प्रमाणित करने के लिए | यह हस्ती इस परिपूर्णता से काम करती है कि वैज्ञानिक भी उसके शाश्वत नियमों को गणितीय समीकरणों में बांध पाएँ हैं | यह महान सत्ता प्रकाश वर्षों की दूरी पर स्थित दो असम्बद्ध कणों को भी
इस सुनिश्चित रीति से गति प्रदान करती है कि गुरुत्वाकर्षण के सार्वभौमिक सिद्धांत का कभी भी अतिक्रमण
नहीं हो सकता है |

वैज्ञानिक जानते हैं कि दो दूरस्थ कण गुरुत्वाकर्षण के नियमानुसार निकट आते हैं – परन्तु वह क्या कारण है जो उन्हें पास आने और योजनाबद्ध तरीके से सम्मिलित रूप में गतिमान होने की प्रेरणा देता है – यह बताने में वैज्ञानिक भी समर्थ नहीं हैं |

इस ब्रह्माण्ड को चलाने वाले ऐसे अन्य अनेक सिद्धांत हैं जिन में से कुछ के गणितीय समीकरणों को आधुनिक वैज्ञानिक बूझ पाएँ हैं, परन्तु अभी भी असंख्य रहस्य विस्तार से खोले जाने बाकी हैं |

अलग-अलग लोग इस हस्ती को अलग-अलग नामों से बुलाते हैं | वैज्ञानिकों के लिए यह ‘सृष्टि के नियम’ हैं,
और ‘वेद’- विश्व की प्राचीनतम पुस्तक उसे अन्य अनेक नामों के साथ ही ‘ओ३म्’ या ‘ईश्वर’ कहती है |

किसी संकीर्ण मनोवृत्ति के अदूरदर्शी एवं छिद्रान्वेषी व्यक्ति को यह संपूर्ण जगत पूरी तरह निष्प्रयोजन लग
सकता है, जो सिर्फ घटनाओं के आकस्मिक संयोग से उत्पन्न हुआ हो | अब यह अलग बात है कि उसका
इस नतीजे पर पहुँचना ही यह प्रमाणित कर रहा है कि  वह इस आकस्मिकता में भी नियमितता और उद्देश्य
को खोजना चाहता है |

बहरहाल, हम इस लेख में उसकी अवास्तविक सोच की चीरफाड़ नहीं करेंगे | हम यहां इस मौलिक प्रश्न पर विचार करेंगे जो कि इस विलक्षण विश्व के सौंदर्य और विचित्रताओं को देखकर अधिकतर यथार्थवादी (अज्ञेयवादी + आस्तिक) व्यक्तिओं के मन में उदित होता है – ईश्वर ने हमें क्यों बनाया?




बहुत से मत-सम्प्रदाय इस मूलभूत सवाल का जवाब देने की कोशिश करते हैं और अधिकतर लोग इसी तलाश में एक सम्प्रदाय से दूसरे सम्प्रदाय की ख़ाक छानते फिरते हैं|

अवधारणा 1 : ईश्वर ने हमें बनाया जिससे कि हम उसे पूजें |

बहुत से धार्मिक विद्वानों का यह दावा है कि उसने हमें इसीलिए बनाया जिससे हम उसकी पूजा / इबादत कर सकें | ये सब अवधारणा इस्लाम और बाइबिल वालो की रही है ??

अगर ऐसा मानें तो –
a. ईश्वर एक दम्भी, चापलूसी पसंद तानाशाह से अधिक और कुछ नहीं रह जाता |

b. यह सिद्ध करता है कि ईश्वर अस्थिर है | वह अपनी आदतें बदलता रहता है इसलिए जब वह अनादि काल से अकेला था तो अचानक उसके मन में इस सृष्टि की रचना का ख्याल आया |

मान लीजिये, अगर हम यह कहें कि, उसने किसी एक समय-बिंदु  ‘t1’ पर हमारी रचना का निश्चय किया |
अब क्योंकि समय अनादि है और ईश्वर भी हमेशा से ही था- इसलिए यह समय ‘t1’ या अन्य कोई भी समय
‘t2’, ‘t3’ इत्यादि समय के मूल (जो की अनंत (infinite) दूरी पर है) से सम-दूरस्थ हैं |

इसीलिए जब वह ‘t1’ समय पर अपनी मर्जी बदल सकता है तो कोई कारण नहीं कि वह ‘t2’, ‘t3’ या अन्य किसी भी समय पर अपनी मर्जी ना बदल सके | साथ ही, यह निश्चय भी नहीं किया जा सकता कि – उसने इस ‘t1’ समय से पहले कभी हमें (या अन्य किसी प्रजाति को) उत्पन्न और नष्ट न किया हो |

जिन सभी सम्प्रदायों का यह दावा है कि अल्लाह ने हमें इसलिए बनाया जिससे कि हम उसकी इबादत कर सकें, वह भी अल्लाह की परिपूर्णता में विश्वास रखतें हैं | यदि अल्लाह पूर्ण है तो वह सभी समय-बिन्दुओं पर अपना काम एक सी निपुणता और एक से नियमों से करेगा |

परिपूर्णता से तात्पर्य है कि वह निमिषमात्र भी अपनी आदतों में बदलाव नहीं लाता | अतः यदि  ईश्वर / अल्लाह / गौड ने हमें ‘t1’ समय पर बनाया है तो अपनी पूर्णता बनाये रखने के लिए उसे हमें अन्य समय-अवधि पर भी इसी तरह बनाना होगा | क्योंकि वह हमें दो बार तो बना नहीं सकता इसलिए उसको हमें पहले विनष्ट करना होगा ताकि फिर से हमें बना सके | अब अगर वह हमें इसी तरह बनाता और बिगाड़ता रहा तो वह यह कैसे सुनिश्चित कर पायेगा कि हम नष्ट होने के बाद भी उसकी इबादत करते रहेंगे |

इसका मतलब तो यह है कि, या तो अल्लाह समय के साथ ही अपनी मर्जी भी बदलता रहता है या फिर उसने हमें इबादत करने के लिए बनाया ही नहीं है|

शंका: जब उसने खुद हमारा निर्माण किया है, तो वह हमें दुःख भोगने पर मजबूर क्यों करता है ?

समाधान - यह सबसे ज्यादा हैरत में डालने वाला सवाल है, जिसका संतोषजनक समाधान कोई भी मत-सम्प्रदाय नहीं दे सके | यह अनीश्वरवाद (नास्तिकता) का जनक है | मुसलमानों में यह मान्यता है कि, अल्लाह के पास उसके सिंहासन के नीचे ” लौहे महफूज” नाम की एक किताब है, जिस में सभी जीवों के भविष्य के क्रिया-कलापों की जानकारी पूर्ण विस्तार से दी हुई है | पर इससे जीवों की कर्म-स्वातंत्र्य के अधिकार का हनन होता है | यदि मेरे कर्म पूर्व लिखित ही हैं, तो मुझे काफ़िर होने की सज़ा क्यों मिले ? और अल्लाह ने पहले से ही “लौहे महफूज” में काफिरों के लिए सज़ा भी क्यों तय कर रखी है ?

//////// //////
मुलसमान धर्मंप्रचारक इस विरोधाभास का जवाब चतुराई से देते हैं | जैसे की नव्य पैगम्बर जाकिर नाइक इसके जवाब में कहता है, ” एक कक्षा में सभी प्रकार के विद्यार्थी होते हैं | कुछ होशियार होते हैं और प्रथम क्रमांक पाते हैं और कुछ असफल हो जाते हैं  | अब एक चतुर शिक्षक यह पहले से ही जान सकता है कि कौन सा विद्यार्थी किस क्रमांक को प्राप्त करेगा | इसका मतलब यह नहीं होता कि शिक्षक अपने विद्यार्थियों को निश्चित तरीके से ही कार्य करने पर बाध्य कर रहा है |  इसका अर्थ सिर्फ यह है कि शिक्षक यह जानने में पूर्ण सक्षम है कि  कौन क्या करेगा | और क्योंकि अल्लाह सर्वाधिक बुद्धिमान है, वह भविष्य में घटित होने वाली हर चीज़ को जानता है |”
//////// //////

बहुत ही स्वाभाविक लगने वाले इस जवाब में यह बड़ा छिद्र है – शिक्षक अपने विद्यार्थियों के कार्य का पूर्वानुमान सिर्फ तभी लगा सकते हैं जबकि वह उनके पूर्व और वर्त्तमान कार्यों का मूल्यांकन कर चुके हों | पर अल्लाह की बात करें तो उसने स्वयं ही तय कर रखा है कि कौन विद्यार्थी जन्मतः ही बुद्धिमान होगा और कौन मूर्ख !
हालाँकि, मोहनदास गाँधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869  को हुआ था, अल्लाह ने उनके जन्म से लाखों वर्ष पहले ही यह तय कर दिया था कि यह बालक एक हिन्दू रहेगा परन्तु मुस्लिमों के प्रति अत्यधिक झुकाव रखते हुए उनका तुष्टिकरण करने में प्रथम क्रमांक पाएगा और फिर भी काफ़िर ही कहलाएगा और दोजख (नरक) के ही लायक समझा जाएगा, बतौर पवित्र मुस्लिम मुहम्मद अली के |  अतः गाँधीजी के पास उनके लिए पूर्व निर्धारित मार्ग पर चलने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था |

यह शिक्षक-विद्यार्थी का तर्क तभी जायज है यदि अल्लाह आत्मा का निर्माण करने के बाद उसे पूर्ण विकसित होने का मौका दे- जब तक वह अपने लिए सही निर्णय करने में सक्षम ना हो जाए; बजाय इसके की अल्लाह पहले से ही “लौहे महफूज” में उनके कर्मों को निर्धारित कर दे | इससे तो अल्लाह अन्यायी साबित होता है|
कृपया “Helpless destiny in Islam” तथा “God must be crazy” इन लेखों का अवलोकन करें |

(ऊपर के दिए हुए "blue" लाइन पर click करे)


अवधारणा 2 : उसने हमें परखने के लिए बनाया है |

हम पहले ही इस धारणा को “God must be crazy” में अनेक उदाहरणों के द्वारा निरस्त कर चुके हैं |  फिर भी यदि यह माना जाए कि वह हमारी परीक्षा ही ले रहा है, तब तो उसके पास “लौहे महफूज” होना ही नहीं चाहिए या यूँ कहें कि तब वह पहले से ही हमारा भविष्य जान ही नहीं सकता | क्योंकि भविष्य जानता है तो परीक्षा की आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? और यदि ऐसा कहें कि वह दोनों कार्य कर रहा है तो उसका यह बर्ताव एक निरंकुश तानाशाह की तरह है जिसे तमाशे करना पसंद है |

तो आखिर उसने हमें बनाया ही क्यों ???
इस उलझाने वाले सवाल के जवाब में दी जानेवाली सभी अविश्वसनीय कैफियतों को हम निष्प्रभावी कर चुकें हैं | यदि परखने के लिए नहीं और पूजने के लिए भी नहीं, तो और क्या कारण हो सकता है हमें बनाने का ? यह हमें ख़ुशी या आनंद देने के लिए तो हो नहीं सकता क्योंकि इस दुनिया में बहुत सी निर्दयी और क्रूर घटनाओं को हम घटित होते हुए देखते हैं – यहां तक कि लोग इस बेदर्द दुनिया से तंग आकर आत्महत्या तक कर लेते हैं |
चाहे ख़ुशी देने के लिए हो या दुःख देने के लिए या फिर परीक्षा लेने के लिए हो, उसने हमें बनाया ही क्यों ? क्या वह सिर्फ अपने एकाकीपन का लुत्फ़ ही नहीं उठा सकता था ? क्या जरुरत थी कि पहले हमें बनाये और फिर हमें अपने इशारों पर नचाए | विवश होकर यह कहने के आलावा और कोई रास्ता नहीं बचता कि “अल्लाह बेहतर जानता है”  या  “खुदा जाने”  या  “ईश्वर ही जाने उसके खेल”  या फिर  “गोली मार भेजे में” |

बौद्ध धर्मं प्रयोगात्मक है, वह तो इस सवाल से कोई सरोकार ही नहीं रखता | वह कहता है कि इस प्रकार के प्रश्नों के बारे में सोचने से पहले हमें मन को साध कर इन्द्रिय निग्रह द्वारा अपनी प्रज्ञा का स्तर ऊँचा उठाना चाहिए | दुनिया की चकाचौंध में फंसे हुए व्यक्ति के लिए जो कि इससे परे कुछ भी देखने या समझने में असमर्थ है, यह एक बहुत ही व्यावहारिक सुझाव है | इस सबके बावजूद, हमारे अंतस में कहीं ना कहीं यह प्रश्न सुलगता रहता है

 – ईश्वर ने हमें बनाया क्यों ?
जब तक इस प्रश्न का संतोषप्रद जवाब नहीं मिल जाता – सभी कुछ निरुद्देश्य लगता है और कोई भी चीज़ मायने नहीं रखती |

यह सच है कि इसका सही जवाब सिर्फ ईश्वर ही जानता है परन्तु मानव जाती के प्रथम ग्रंथ – ‘वेद’ इस पेचीदा सवाल पर पर्याप्त प्रकाश डालतें हैं ताकि आगे हम इसकी गहराई में उतर सकें |

वेद स्पष्ट और निर्णायक रूप से कहतें हैं कि ईश्वर ने हमें नहीं बनाया |
और क्योंकि ईश्वर ने हमें कभी बनाया ही नहीं, वह हमें नष्ट भी नहीं करता | जीवात्मा का सृजन और नाश ईश्वर के कार्यक्षेत्र में नहीं आता | अतः जिस प्रकार ईश्वर अनादि और अविनाशी है, उसी प्रकार हम भी हैं | हमारा अस्तित्व ईश्वर के साथ हमेशा से है और आगे भी निरंतर रहेगा |

प्रश्न: यदि ईश्वर ने हमें नहीं बनाया तो वह करता क्या है?
उत्तर: ईश्वर वही करता है जो वह अब कर रहा है | वह हमारा व्यवस्थापन (पालन, कर्म-फल प्रबंधन आदि) करता है |

प्रश्न: तब उसने यह विश्व और ब्रह्माण्ड क्यों बनाया ?
उत्तर: ईश्वर ने इस जगत और ब्रह्माण्ड के हेतु (मूल कारण) का निर्माण नहीं किया | इस जगत का मूल कारण ‘प्रकृति’ हमेशा से ही थी और आगे भी हमेशा रहेगी |

प्रश्न: जब ईश्वर ने इस विश्व को और हमें नहीं बनाया, तो वह करता क्या है – यह एक दुविधा है ?
उत्तर: जैसा पहले बताया जा चुका है, वह हमारा प्रबंधन करता है | विस्तृत रूप में देखा जाए तो – जिस तरह कुम्हार मिटटी और पानी से बर्तन बनता है, उसी तरह ईश्वर इस निर्जीव प्रकृति का रूपांतरण कर यह विश्व / ब्रह्माण्ड बनाता है | फिर वह इस इस ब्रह्माण्ड में जीवात्माओं का संयोजन करता है|

प्रश्न: यह सब वह क्यों करता है ?
उत्तर: यह सब वह करता है ताकि जीवात्मा कर्म करके आनंद प्राप्त कर सके | इसलिए वह जीवात्मा को ब्रह्माण्ड के साथ इस प्रकार संयुक्त करता है जिससे कर्म के सिद्धांत हर समय पूर्णतया बने रहें | इस प्रकार, जीवात्मा अपने कर्मों द्वारा आनंद को बढ़ा या घटा सकता है |

प्रश्न: हमें ख़ुशी देने के लिए उसे इतना प्रपंच करने कि क्या आवश्यकता है ? क्या वो सीधे तौर पर हमें ख़ुशी नहीं दे सकता ?
उत्तर: ईश्वर अपने गुणधर्म के विपरीत कुछ नहीं करता | जैसे, वह स्वयं को न तो कभी नष्ट कर सकता है और न ही नया ईश्वर बना सकता है | जीवात्मा के भी कुछ लक्षण हैं – वह चेतन है, सत् है परन्तु आनंद से रहित है | वह स्वयं कुछ नहीं कर सकता | ये उस मायक्रोप्रोसेसर की तरह है जो सिर्फ मदर बोर्ड और पॉवर सप्लाय से जुड़ने पर ही कार्य कर पाता है |अतः ईश्वर ने कंप्यूटर सिस्टम नुमा ब्रह्माण्ड को बनाया जिससे कि मायक्रोप्रोसेसर नुमा जीवात्मा कार्य कर पाए और अपने सामर्थ्य का उपयोग कर आनंद को प्राप्त करे |

प्रश्न: कर्म का सिद्धांत कैसे काम करता है ?

उत्तर: कृपया ‘FAQ on Theory of Karma’ का भी अवलोकन  करें  | मूलतः जीवात्मा के ६ गुण हैं : इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख,और ज्ञान | इन सब के मूल में जीव की इच्छा शक्ति और परम आनंद ( मोक्ष ) प्राप्त करने का उद्देश्य है | जब भी जीवात्मा अपने स्वाभाविक गुणों के अनुरूप कार्य करेगा उसके गुण अधिक मुखरित होंगे और वह अपने लक्ष्य के अधिक निकट पहुंचता जाएगा | किन्तु, यदि वह अस्वाभाविक व्यवहार करेगा तो उसके गुणों की अभिव्यक्ति कम होती जाएगी साथ ही वह लक्ष्य से भटक जाएगा | अतः अपने कार्यों के अनुसार जीवात्मा चित्त (जीवात्मा का एक लक्षण ) की विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करता है |

ईश्वर जीवात्मा के इस लक्षण के अनुसार, उसे ऐसा वातावरण प्रदान करता है | जिससे उसकी इच्छापूर्ति एवं लक्ष्य प्राप्ति में सहायता हो | अतः परमानन्द कार्यों का परिणाम है, कार्य विचारों का, विचार ज्ञान का एवं ज्ञान इच्छा शक्ति का परिणाम है | इससे विपरीत भी सही है – यदि कार्य गलत होंगे तो ज्ञान कम होता जाएगा – परिणामस्वरूप इच्छाशक्ति घट जाएगी | और जब कोई अत्यधिक बुरे कर्म करे तो ईश्वर ऐसे जीवात्माओं को अ-मानव ( अन्य विविध प्राणी ) प्रजाति में भेजता है, जहाँ वे अपनी इच्छा शक्ति का प्रभावी उपयोग न कर पाएँ | यह जीवात्मा के चित्त में जमे मैल की शुद्धि के लिए है | यह प्रक्रिया मृत्यु से बाधित नहीं होती | मृत्यु इस यात्रा में मात्र एक छोटा विराम या पड़ाव है, जहाँ आप अपने वाहन से उतरकर भोजन पानी से सज्ज हो कर नयी शुरुआत करते हैं |

प्रश्न: इसे एक ही बार में समझना काफ़ी कठिन है , कृपया संक्षेप में समझाइये –

उत्तर:
a) ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों शाश्वत सत्ताएं हैं जो हमेशा से थी और हमेशा ही रहेंगी | यह त्रैतवाद का
सिद्धांत है |

b) ईश्वर कभी जीव या प्रकृति का सृजन अथवा नाश नहीं करता | वह तो सिर्फ एक उत्कृष्ट प्रबंधक की तरह आत्मा और प्रकृति का संयोजन इस तरह करता है ताकि जीव अपने प्रयत्न से कर्म – फ़ल के अनुसार मोक्ष प्राप्त कर सके |

c) हमारे साथ घटित होने वाली सारी घटनाएं दरअसल हमारे प्रयत्न के फ़लस्वरूप हैं जो हम अंतिम क्षण तक करते हैं | और हम अपने प्रारब्ध को हमारे वर्तमान और भविष्य के कर्मों द्वारा बदल सकते हैं |

d) मृत्यु कभी अंतिम विराम नहीं होती | वह तो हमारी अबाध यात्रा में एक अल्प-विराम (विश्रांति) है |

e) जब हम ईश्वर को निर्माता कहते हैं तो उसका अर्थ है कि वह जीव और प्रकृति को साथ लाकर संयोजित एवं व्यवस्थित आकार प्रदान करता है |  वह जीवों की मदद की लिए ही ब्रह्माण्ड की व्यवस्था करता है | अंततः विनष्ट कर के पुनः निर्माण  की नयी प्रक्रिया शुरू करता है | यह सम्पूर्ण निर्माण- पालन- विनाश की प्रक्रिया उसी तरह है जैसे रात के बाद दिन और दिन के बाद रात आती है | ऐसा कोई समय नहीं था  जब  यह प्रक्रिया नहीं थी या ऐसा कोई समय होगा भी नहीं जब यह प्रक्रिया न हो या बंद  हो जाय |  इसलिए, यही कारण है कि वह ब्रह्मा (निर्माता), विष्णु (पालनहार) और  शिव (प्रलयकर्ता) कहलाता है |

f) ईश्वर का कोई गुण नहीं बदलता, अतः वह हमेशा जीव के कल्याण के लिए ही कार्य करता है |

g) जीवात्मा के पास स्वतंत्र इच्छा है, पर वह उसके ज्ञान के अनुसार है जो उसके कर्मों पर आश्रित है | यही कर्म सिद्धांत का मूलाधार है|

h) ईश्वर सदैव हमारे साथ है ।  हमें अपनी अंतरात्मा की आवाज सुननी चाहिए और हर क्षण सत्य का स्वीकार तथा असत्य का परित्याग करना चाहिए | सत्य की चाह ही जीवात्मा का गुण तथा इस जगत का प्रयोजन है |
जब हम सत्य का स्वीकार करने लगते हैं तो हम तेजी से हमारे अंतिम लक्ष्य – मोक्ष की तरफ़ बढ़ते हैं |

सारांश में, ईश्वर ने हमें अभाव से कभी नहीं बनाया – उसने इस अद्भुत संसार की रचना हमारे लिए की, हमारी सहायता करने के लिए की | और हम इस प्रयोजन की पूर्ति – सत्य की खोज करके पूरी कर सकते हैं |
यही वेदों का मुख्य सन्देश और यही जीवन का सार तत्व  है |

प्रश्न: एक अंतिम सवाल – इस बात पर कैसे यकीन करें कि यह सत्य है और कोई नव निर्मित
सिद्धांत नहीं ?

उत्तर: इस पर यकीन करने के अनेक कारण हैं, जैसे –
यहां कही गई प्रत्येक बात वेदानुकूल है | जो कि संसार की प्राचीनतम और अपरिवर्तनीय पुस्तक है | नीचे दिए गये पाठ का अवलोकन करने से आप अनेक संदर्भ विस्तार से देख सकते हैं |

यह सिद्धांत सहज बोध और जीवन के नित्य प्रति के अवलोकन के अनुसार है |
यह आखें मूंदकर किसी सिद्धांत को मानने की बात नहीं है | कर्म के सिद्धांत तो सर्वत्र क्रियान्वित होते हुए दिखायी देते हैं | दूर क्यों जाएं? आप मात्र ३० दिनों तक सकारात्मक, प्रसन्न एवं उत्साही बनकर देखिये | नकारात्मक एवं बुरे कर्मों को अपने से दूर रखिये -और फिर देखिये आप क्या अनुभव करते हैं | इस छोटे से प्रयोग से ही देखिये आप के जीवन में आनंद का स्तर कहां तक पहुँचता है | जिन्हें किसी ने नहीं देखा ऐसे चमत्कार की कहानियों या विकासवाद के सिद्धांत से तो यह अधिक विश्वसनीय है |

वेद उसका अन्धानुकरण करने के लिए कभी नहीं कहते | इस सिद्धांत के इस क्रियात्मक पक्ष को हर विवेकशील व्यक्ति स्वीकार करेगा  – कि ज्ञानपूर्वक सत्य का ग्रहण करें और असत्य को त्यागें | Religion of Vedas में वर्णित अच्छे कार्यों को करें | स्मरण रखें कि वेदों का मार्ग अत्यधिक  संगठित और प्रेरणादायी है | जिसमें विश्वास करने की कोई अनिवार्यता नहीं है |  वेदों का अभिप्राय यह है – जैसे ही आप स्वतः सत्य को स्वीकार और असत्य को छोड़ना शुरू करते हैं चीजें स्वतः आप के सामने स्पष्ट हो जाती हैं | यदि आप इस से आश्वस्त नहीं हैं तो चाहे इसे कुछ भी कहें, पर इससे अधिक तार्किक, सहज- स्वाभाविक और प्रेरणात्मक सिद्धांत और कोई नहीं है – ” ईश्वर हमेशा से है तथा हरदम हमारी  पालन करता है और हमारे कर्म स्वातंत्र्य का सम्मान करते हुए अपने स्वाभाव से हटे बिना, हमारे कल्याण के लिए ही कार्य करता है और हमें अवसर भी प्रदान करता है | ”


नोट: इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए सत्यार्थ प्रकाश के 7 ,8  और 9  वें अध्याय का स्वाध्याय अवश्य करें | 129  वर्ष पुरानी भाषा होते हुए भी इस पुस्तक में अमूल्य एवं अलभ्य सिद्धांत वर्णित हैं |

हिंदी आवृत्ति: http://agniveer.com/wp-content/uploads/2010/09/satyarth_prakash_opt4.pdf
जो व्यक्ति ध्यान पूर्वक इन तत्वों को समझ सके और आत्मसात करे उसे स्वयं के उद्धार के लिए अन्य किसी की आवश्यकता नहीं है |

सत्यमेव जयते!

ADMIN- MANISH KUMAR (ARYA)

No comments:

Post a Comment