Sunday 25 October 2015

ऋषि दयानंद का ही वेद भाष्य सर्वोतम क्यूँ ?


- योगी और वेदार्थ -

वैदिक संस्कृत सम्बन्धी एक सबसे अधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण व्याकरण का नियम अष्टाध्यायी अ० 3 पाद 1 सूत्र 85 में दिया है वह यह है - व्यत्ययो बहुलम्। 
इस सूत्र का अर्थ है कि - वेदों में शब्दादी का बदलना होता है और कहीं विकल्प से होता है और कहीं नहीं
होता है।

[ लौकिक संस्कृत की व्याकरण के अनुसार उस में शब्दादी को बदलना असम्भव है ]
इस अष्टाध्यायी के सूत्र का भाष्य करते हुए महाभाष्य में पतञ्जलि ॠषि ने एक कारिका (एक प्रकार का श्लोक) लिखी है जो वेदों के प्रत्येक प्रेमी को जानना चाहिए जिससे कि स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि वेदों के शब्दादी में क्या क्या बदल सकता है। वह कारिका निम्नलिखित है :

सुप्तिङुपग्रहलिंगनराणां कालहलच्स्वरकर्तृयङां च।
व्थत्ययमिच्छसि शास्त्रकृदेषांसोsपि च सिध्यति बाहुलकेम।।


अर्थ - शास्त्रकार इनमें (जो नीचे लिखे हैं) यदि(वेदार्थ हेतु) व्यत्यय अर्थात् बदलने की इच्छा करे तो वह बदल सकता है। और वह बदलना सूत्र में जो [बहुलम्] शब्द है उससे सिद्ध होता है।

वेदार्थ हेतु उपरोक्त कारिकानुसार निम्नलिखित बातें बदल सकती हैं -
१. सुप् = सुबन्त अर्थात् कारक (cases) सब बदल सकते हैं सम्बन्ध (अर्थात् possessive case) भी
बदल सकता है। जैसे मानो वेद में रामः=(कर्ता)राम ने लिखा है। तो व्यत्यय से इसका अर्थ और कारकों
में हो सकता है। अर्थात् रामः=रामने का अर्थ निम्न लिखित कार्य कर सकता है अर्थात् 'राम को (कर्म रामम्)' 'रामसे (अपादान रामात्)' 'राम से (करण रामेण)' 'राम में (अधिकरण रामे)' 'राम के लिए (सम्प्रदान रामाय)'
'हे राम (सम्बोधन)' और आप कह सकते हैं कि इस अर्थ में वास्तव में यह शब्द था व्यत्यय करके वेदार्थ कर्ता
ने ऐसा प्रयोग किया है।


२. तिङ् =तिङन्त अर्थात् धातु के रूप बदले जा सकते हैं। अर्थात् क्रिया बदली जा सकती है।

३. उपग्रह = अर्थात् वेद में परस्मैपद धातु का आत्मनेपद और आत्मनेपद का परस्मैपद हो सकता है (यह दो क्रियाओं के रूप चलाने के मार्ग हैं)।
४. लिङ्ग =अर्थात् वेद में स्त्रीलिंग का पुल्लिंग और पुल्लिंग का स्त्रीलिंग, इसी प्रकार इन दोनों का नपुंसकलिंग और उसका यह दोनों बदल कर हो सकते हैं।

५. नर =अर्थात् वेद में पुरुष भी बदल सकते हैं अर्थात् उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष और प्रथम पुरुष, एक दूसरे में परिवर्तित हो सकते हैं।
उदाहरणार्थ:
यजुर्वेद अ० 7 मन्त्र 45 पर महीधर भाष्य में -- मंत्र में 'विपश्य' शब्द लिखा है जिसका अर्थ है
'तू देख'

[अर्थात् मध्यम पुरुष एक वचन आज्ञा imperative mood में ]
परन्तु महीधर लिखते हैं - "विपश्य विपश्यामि विलोकयामि। व्यत्ययो बहुलम् इति उत्तमपुरुषस्थाने पश्येति मध्यमः पुरुषः।।"
अर्थात् उसका अर्थ 'मैं देखता हूँ' ऐसा करते हैं।
६. काल=वेद में वर्तमान, भूत, भविष्यत् एक दूसरे में बदल सकते हैं। जैसे कहीं लिखा हो कि ईश्वर पृथ्वी को धारण किए हुए था, सो वेदार्थकर्ता अर्थ कर सकता है कि ईश्वर पृथ्वी धारण कर रहा है इत्यादि।
७. हल् =अर्थात् व्यञ्जन सब एक दूसरे में बदल सकते हैं द् का ध,क् का प् इत्यादि।
८. अच् =अर्थात् स्वर एक दूसरे में बदल सकते हैं अ का इ, उ का ए, इत्यादि हो सकते हैं।
९. स्वर =उदात्त, अनुदात्त स्वरित् मन्त्रों, के उच्चारण के स्वर (जो मन्त्रों के शब्दों पर लकीरें बना कर लिखे जाते हैं) वह परस्पर बदल सकते हैं।
१०. कर्तृ और यङ् प्रत्ययहार शेष कृदंततद्धितादि और बहुत सी बातें बदल सकती हैं।
अब आप स्वयं विचारें कि जिस भाषा के अक्षर तक बिल्कुल बदल सकते हैं उस भाषा के ग्रंथ अर्थात् वेदशास्त्र के मन्त्रों का यथावत् तात्पर्य्य और अर्थ ईश्वर जो उसका कर्त्ता है या ॠषि जो समाधिस्थ होकर ईश्वर का साक्षात् करते हैं, जान सकते हैं, वस्तुतः ॠषि कोटि का व्यक्ति ही मन्त्रदृष्टा हो सकता है, सिवाय उनके और कौन जान सकता है।

हमारे पौराणिक पण्डित अज्ञानवश प्रायः यह कह उठते हैं कि देखो शब्द का रूप और था परन्तु स्वामी दयानंद ने अर्थ दूसरे रूप के किए।
जैसे परमात्मा की बनाई हुई सब वस्तुओं को यथार्थ रूप में सिवाय योगी के और कोई नहीं समझ सकता,
ठीक उसी प्रकार वेद का अर्थ भी सिवाय योगी के और कोई नहीं कर या समझ सकता है।


स्वामी दयानंद एक वैसे ही अधिकारी पुरुष थे। जितना बुद्धिमान् मनुष्य होगा वैसा ही अर्थ व्याकरण के अनुसार कर सकता है। स्वामी दयानंद बुद्धिमत्ता किस स्तर की थी, सो उनके व मध्यकालीन वेदभाष्यकारों के भाष्य के सहअध्ययन से स्पष्ट हो जाता है।

स्वामी दयानंद का पूर्णतः नैरुक्तिक शैली का वेदभाष्य है। स्वामी दयानंद ने वैदिक व्याकरण का अपने भाष्य में बहुत ही सहारा लिया है। महीधर आदि के भाष्य ऐतिहासिक शैली के भाष्य थे व वैदिक व्याकरण का न्यून सहारा ही लिया, लौकिक संस्कृत व्याकरण का सहयोग लिया, इसलिए स्वामी दयानंद का भाष्य ही विशेष रूप से उत्तम है।

सो ऐसा व्याकरणाचार्य जन उनके भाष्यों के सह-अनुसंधान से समझ सकते हैं।

तीसरी पौराणिक शैली में तो व्याकरण के बिल्कुल विपरीत तात्पर्य्य ही समझा जाता है। यह शैली वस्तुतः वेदार्थ करने की शैली नहीं किन्तु वेदमन्त्रों का अभिप्राय मात्र समझने की शैली है। इस कारण यह बिल्कुल असत्य और धोखा देने वाली है। वेदमन्त्र के किसी एक शब्द को लेकर उसका यथार्थ किए बिना उस सम्पूर्ण मन्त्र का अभिप्राय समझा जाता है। यथा पं० बालकराम, पं० ज्वालाप्रसाद आदि के भाष्यार्थ। जैसे यजुर्वेद अ० १७ के ४६ वें मंत्र "प्रेता जयता नर....... " के 'प्रेत' शब्द से पिण्डदोक क्रिया आदि में सहायता लेते हैं। अधिक नहीं लिखता। मनीषी लोग इनकी धूर्तता सरलता से पकड़ सकते हैं।


सो विद्वत् जन निर्णय लें कि सायण, महीधर, मैक्समूलर,पं श्रीराम शर्मा (महीधर के अनुयायी), ज्वालाप्रसाद,अम्बिकादत्त इत्यादि के भाष्य हेय क्यों हैं।

Admin- Manish Kumar (arya)

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