Wednesday 18 November 2015

क्या महाभारत में रंतिदेव की रसोई में गायों का वध होता था ?


मांसाहार और शाकाहार का मुद्दा ऐसा है की इस पर जितनी भी बहस कर ली जाये कोई ठोस नतीजा निकल के नहीं आता। हिन्दू जंहा इस्लाम में जानवरों की 'कुर्बानी(?)' को  लेके प्रश्न करते हैं वहीं मुस्लिम भी आरोप लगते हैं की  हिन्दू लोग भी गौहत्या किया करते थे,और इन्ही गौहत्यारे हिन्दुओं में राजा रंतिदेव का नाम पहले लिया जाता है । कहा जाता है की उसकी रसोई में प्रतिदिन दो हज़ार गायों का वध होता था??

मैं इसमें क्या बोलू , हिन्दुओ की दशा आज दयनीय है , हिन्दुओ  को संस्कृत का ज्ञान है ही नहीं , तो कोई भी अपने चाल में हिन्दुओ को फँसा लेता है। यही हाल वेदो में भी है , वेदों को आराम से misqyote करके , अर्थ का अनर्थ कर दिया जाता है , और हिन्दू इसे  accept भी कर लेता है । 

अब देखते हैं महाभारत के वनपर्व के वो श्लोक जिसके आधार पर राजा रंतिदेव को गौहत्या करने वाला कहा जाता है -

राज्ञो महानसे पूर्वं रंतिदेवस्य वै द्विज |
द्वे सहस्त्रे तु वध्येते पशुनंन्वहनं तदा |
अहन्यहनि वध्येते द्वे सहस्त्रे गवां तथा ||

अनर्थरान्तिदेव नामक एक राज प्रतिदिन  लोगोंको मांस बांटने के लिए दो हजार पशुओं या दो हजार गायों की हत्या करता था  ?

व्याकरणगत अशुद्धि 

इस श्लोक में ‘वध्येते’” का अर्थ मारना लिया गया है जो की संस्कृत व्याकरण के अनुसार पूर्णतयः अशुद्ध है क्यूँकी संस्कृत में ‘वध’ धातु स्वतन्त्र है ही नहीं जिसका अर्थ ‘मारना’ हो सके ,मरने के अर्थ में तो ‘हन्’ धातु का प्रयोग होता है |पाणिनि का सूत्र है हनी वध लिङ् लिङु च “ इस सूत्र में  कर्तः हन् धातु को वध का आदेश होता है अर्थात वध स्वतन्त्र रूप से प्रयोग नही हो सकता है |अतः व्याकरण के आधार पर स्पष्ट है की की ये ‘वध्येते ‘ हिंसा वाले वध के रूप में नहीं हो सकते हैं | तब हंमे यह ढूढ़ना पड़ेगा की इस शब्द का क्या अर्थ है और निश्चय ही ये हत्या वाले ‘हिंसा’ नहीं अपितु बंधन वाले ‘ बध बन्धने’ धातु है |

इसके अतिरिक्त २ और पंक्तियाँ है जिनके आधार पर राजा रान्तिदेव को गोवध करने वाला , ऐसा सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है -


समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्‍य नित्‍यशः
अतुला कीर्तिरभवन्‍नृप्‍स्‍य द्विजसत्तम|

 इस श्लोक का अनर्थ जो  लोग लेते  -सदा मांस सहित भोजन देने वाले राज रान्तिदेव कि अतुलित कीर्ति हुयी ??


यहाँ पर ‘समांसं‘  का अर्थ पशुमंस से युक्त उचित नहीं होगा और कारन आगे बताया जाएगा |पुराने समय में सभी शब्दों के विस्तृत अर्थ हुआ करते थे परन्तु आज उनका अर्थ अत्यंत सीमित हो गया है उदहारणतयः ‘मृग’ का अर्थ पहले सभी वन्य पशुओं के लिए था जबकि वर्त्तमान में यह केवल ‘हिरण’ के लिए हैं और वृषभ का अर्थ बैल , अपने विषय में सर्वश्रेष्ठ , तेज गति से चलने वाला , शक्तिशंली इस भांति के १६ अर्थ थे परन्तु आज केवल बैल अर्थ लिया जाता है इसी भांति पुराने समय में मांस का अर्थ पशुमांस के साथ साथ गौउत्पाद  अर्थात दूध , दही भी था परन्तु आज वह केवल पशुमांस का पर्याय ब�� कर रह गया है | वर्त्तमान पंक्तियों के सन्दर्भ में , राजा रान्तिदेव के चरित्र ,पंक्तियों के प्रसंग ,गौ की महत्तता तथा तात्कालिक सामाजिक मान्यताओं के कारण यहाँ पर पशुमांस नहीं अपितु दूध यह अर्थ ही उचित होगा |

इसके अतिरिक्त-

आलाभ्यंत शतं गवः सहस्त्राणि च विशन्ति
 विरोधी  आलाभ्यंत का अर्थ हिंसा करते हैं

इसी भांति महाकवि कालिदास " मेघ दूत" में रंतिदेव से सम्बंधित पंक्ति-

व्यालाम्बेथः सुरभितानाया – आलम्भ्जाम मनिष्यन
में आलम्भ्जाम का अर्थ हिंसक कहते हैं |


जबकी इसका अर्थ स्पर्श या प्राप्त है और यह परंपरा रही है की दान देने वाला व्यक्ति दान दी जारी  वास्तु को छूकर दान दे देता  है| आलाभ्यंत शब्द का वेदों अन्य स्थानों पर भी इसी भांति प्रयोग हुआ है यथा -
ब्रहामाने ब्राहमण अलाभ्ते – ज्ञान के लिए ज्ञानी को प्राप्त करता है
क्षत्राय राज्न्यम आलाभ्ते -शौर्य के लिए शूर को प्राप्त करता है
तार्किक असम्भाव्यता -

तार्किक रूप से भी पशुओं के वध वाला अर्थ उचित नहीं  लगता है क्यूँकी सर्वप्रथम कभी भी रसोई में पशुओं का वध नहीं किया जाता है | वध स्थल में इतनी अधिक गन्दगी होती है की वहा रसोई से बहुत दूर और यदि संभव हो तो नगर के बाहर  होता है |दूसरी बात हिंदुत्व विरोधी कहते हैं  की मारी गयी गायों के चमड़े से निकले हुए पानी से चर्म्वती नदी बन गयी | एक तो न ही कभी मारे हुए पशुओं का चमडा रसोई में रखा जाता है और न ही गीले चमड़े से निकला हुआ जल इतनी अधिक मात्रा में होता है की बहता हुआ दिखाई दे हाँ यदि इसे पशुओं को धोने से बहता हुआ जल कहा जाय तो तर्कसंगत होगा

|इसके अतिरिक्त महाभारत में ही सामान प्रसंग में कहा गया है कीराजा रंतिदेव के यज्ञ में प्रेमवश ग्रामो और वनों से पशु स्वयं उपस्थित हो जाते थे “; आपने देखा होगा की शहरों में भी जो गाय स्वछंद विचरण करती है उसे अगर एक दिन रोटी दे देंगे तो दुसरे दिन वो स्वयं आपके दरवाजे पर आ जाएगी , इसलिए ये तर्क सांगत नहीं की पशु अपना वध करवाने के लिए स्वयं उपस्थित हो जाये , हाँ ये जरुर है की अगर उसे भोजन दिया जाये तो वो स्वयं उपस्थित हो सकते हैं । इसके अतिरिक्त महाभारत में कई स्थानों पर गौ दान के द्वारा कीर्ति प्राप्त होने की बात कही गयी है |


यहाँ लगे snapshot देखे , की महाभारत में पशु-प्रेम कितना था । 



महाभारत का मूल प्रसंग  -

ये श्लोक महाभारत के वनपर्व के हैं तथा जिसमे एक वधिक द्वारा की गयी हिंसा की निंदा की गयी है |  जिस खंड का उद्देश्य ही वधिक द्वारा की गयी हिंसा की निंदा हो उस के अन्दर चार हजार निर्दोष पशुओं की हत्या करके कीर्ति प्राप्त करने की बात लिखी होना हास्यास्पद है |

इस प्रसंग में पुत्र वध से दुखी राजा युधिषठिर को समझाते हुए श्री कृष्ण कहते हैं की पूर्व काल के कई यशस्वी राजा भी जीवित नहीं रहे | इसी क्रम में श्री कृष्ण ने कई राजाओं जैसे शिबी आदि के नाम बताये जिन्होंने गौ  दान के द्वारा यश अर्जित किया था |

राजारान्तिदेवकी कीर्ति का वास्तविक कारण -

राजा रान्तिदेव  की कीर्ति का कारण गायों का दान करना तथ�� फल फूल द्वारा ऋषियों का स्वागत करना था | राजा रंतिदेव के बारे में कहा गया है की वो हजारों गायें और सहस्त्रों निष्क छूकर दान देते थे |निष्क एक राशी होती है जिसमे एक स्वर्ण माला से युक्त वृषभ , उसके पीछे एक हजार गायें और एक सौ आठ स्वर्ण मुद्राएँ होती हैं |राजा रान्तिदेव की रसोई में मणिमाय कुंडल धारण किये हुए रसोइये पुकार पुकार कर कहते थे आप लोग खूब दाल भात खाइए |राजा रन्तिदेव की कीर्ति का वास्तविक कारण यही 
था |

चर्मण्वती नदी-

हिन्दू  विरोधी एक  श्लोक का अर्थ करते हुए कहते हैं की राजा रंतिदेव की ‘रन्तिदेव’ की रसोई में दो हजार गायें मारी जाती थी और उनका गीला चमडा रसोई में रखा जाता था |उसका टपका हुआ जो जल बहा वह एक नदी बन गया जो की कर्मवती नदी कहलाया | परन्तु यदी आप महा भारत में उस श्लोक के ठीक पहले वाला श्लोक उठा कर देखें तो आप को  इस तर्क की हास्यास्पदता पता चलेगी जिसमे की कहा गया है की कठोर व्रत का पालन करने वाले राजा रन्तिदेव के यहाँ गावों और जंगल से पशु  यज्ञ के लिए स्वयं उपस्थित हो जाते थे | अब आप स्वयं विचार करिए की क्या वो पशु स्वयं के वध के लिए उपस्थित होते रहे होंगे या दूध देने के लिए ? वास्तव में पशुओं को धोने के लिए जिस नदी का जल प्रयोग किया जाता था उसका नाम चर्म्वती नदी था जो की आज चम्बल है |

गौ की अवध्यता -

वेदों में तथा महाभारत में भी सभी स्थानों पर गौ को अवध्य कहा गया है | यहता महाभारात्र शांतिपर्व “श्रुति में गौवों को अवध्य कहा गया है  तो कौन उनके वध का विचार करेगा ? जो गायों और बैलों को मरता है वो महान पाप करता है  ” | “अगर पशुओं की हत्या का फल स्वर्ग है तो नरक किन कर्मों का फल है  ? “

आरे गोहा नृहा वधो वो अस्तु ऋग्वेद ७ ।५६।१७
सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत मार |


सूयवसाद भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम
अद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती (ऋग्वेद १।१६४।४०)

ऋग्वेद गौ- हत्या को जघन्य अपराध घोषित करते हुए मनुष्य हत्या के तुल्य मानता है और ऐसा महापाप करने वाले के लिये दण्ड का विधान करता है |


अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय  (ऋग्वेद १ ।१६४।२७)

अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं |


  तो क्या अब भी कोई शंका कर सकता है की राजा रंतिदेव की रसोई में गायों का वध होता था?


ADMIN - MANISH KUMAR (ARYA)

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